सोमाहर तिळक सींचतो साबळ,
करतो खग दांती कहर।
रिण रोहियो घणो राठोड़ै,
चीबोळ एकलवा वर ।।१।।
भाजै छांळ खरडक़ै भाला,
पड़ै न पिंड देतो पसर।
एकल जैत सलख आहेडी,
सकै न पाड़ै भड़ सिहर।।२।।
ऊपाडिय़ै लूट आधंतर,
जण-जण पूगो लुवो- जुवो।
खींवर हा कलियो खीमावत,
होकर जाड़ विहाड़ हुवो।।३।।
(देवड़ा राजपूतों की चीबा शाखा के जैता के संबंध का यह डींगळ काव्य एक प्रसिद्ध छंद है। भावार्थः- वाराह की भांति सोमा देवडा के वंश में तिलक रुप जैता चीबा को कई राठौडौ ने घेर लिया है। जैता अपने खड़ग से कहर मचाता हुआ व भाले से रक्त सिंचता हुआ युद्घ कर रहा है। जैता की युद कलाऒ पर कवि ने उत्तम काव्य की रचना की है्।) दुरसा आढ़ा रचित्
अमृत महोत्सव से अमृतकाल तक की यात्रा
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*अमृत महोत्सव से अमृतकाल तक की यात्रा*
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