साथियो,
राम-राम। आज मैं आपसे राजभाषा हिन्दी में मुखातिब हूं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपनी मातृभाषा राजस्थानी का सम्मान नहीं करता। हकीकत तो यह है कि जो व्यक्ति अपनी मां का सम्मान करता है, वही अन्य की मांओं का सम्मान करना जानता है। हमारे दिल की बात अन्य भाषा-भाषियों तक भी पहुंचे, इसलिए आज हिन्दी में।
मां हमें जिस भाषा में दुलारती है, लोरियां सुनाती है, जिस भाषा के संस्कार पाकर हम पलते-बढ़ते हैं, वही होती है हमारी मातृभाषा। जनगणना के वक्त भी मातृभाषा के कॉलम में हमें उसी मां-भाषा का नाम लिखना-लिखवाना चाहिए। अक्सर देखा गया है कि राजस्थान में बसने वाले राजस्थानी, पंजाबी, सिंधी आदि भाषी लोगों की मातृभाषा अनभिज्ञतावश हिन्दी लिख दी जाती है। हमें इस मामले में सावचेती बरतनी चाहिए। सही आंकड़े प्रस्तुत कर हम हिन्दी के सम्मान को कम नहीं कर रहे, बल्कि अपनी मां-भाषा का सच्चा सम्मान कर रहे होते हैं और अपने राष्ट्र की एक सही-सही तस्वीर भी दुनिया के समक्ष रख रहे होते हैं। असल में भाषाओं की विविधता हमारे राष्ट्र की खूबी है और यह खूबी बरकरार रहनी चाहिए। राजस्थानियों को भी जनकवि कन्हैयालाल सेठिया का यह दूहा याद रखना चाहिए-
खाली धड़ री कद हुवै, चैरै बिन्यां पिछाण?
मायड़ भासा रै बिन्यां, क्यां रो राजस्थान?
सही कहा सेठियाजी ने कि जिस भाषा के नाम पर राजस्थान नाम पड़ा इस प्रांत का। वह भाषा ही नहीं रही तो राजस्थान काहे का? इसलिए राजस्थानी का सवाल राजस्थान की पहचान का सवाल है।
देश के लगभग हर प्रांत में वहां की प्रमुख भाषा को प्रथम भाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है और सारा राजकाज उसी भाषा में चलता है। वही भाषा शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रचलित है। मसलन पंजाब में पंजाबी, गुजरात में गुजराती, महाराष्ट्र में मराठी, आंध्र प्रदेश में तेलुगु, अरुणाचल प्रदेश में असमिया, बिहार में मैथिली और हिन्दी, गोआ में कोंकणी, जम्मू-कश्मीर में उर्दू, झारखंड में संथाली, कर्नाटका में कन्नड़, केरला में मलयालम, मणिपुर में मणिपुरी, उड़ीसा में उडिय़ा, सिक्किम में नेपाली, तमिलनाडु में तमिल, प. बंगाल में बंगाली आदि। इन प्रांतों में हिन्दी, अंग्रेजी आदि को प्रांत की द्वितीय राजभाषा के रूप में अंगीकार किया गया है। यहां तक कि दिल्ली और हरियाणा राज्यों में तो पंजाबी को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया गया है। दूसरी और राजस्थान राज्य का हाल यह है कि यहां की प्रमुख भाषा राजस्थानी राज्य की प्रथम राजभाषा बनने की अधिकारिणी है, मगर उसे द्वितीय तो दूर तृतीय भाषा के रूप में भी स्वीकार नहीं किया जाता। राजस्थान के स्कूलों में संस्कृत, उर्दू, गुजराती, सिंधी, पंजाबी, मलयालम, तमिल आदि भाषाएं तो तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है, मगर अपने ही प्रांत की राजस्थानी नहीं। राजस्थान की विधानसभा में राजस्थानी भाषा के संस्कारों से ही पला-बढ़ा और राजस्थानी में ही वोट मांग-मांग कर विधानसभा तक पहुंचा एक विधायक 22 भारतीय भाषाओं में भाषण देने का अधिकार तो रखता है, मगर अपनी मातृभाषा राजस्थानी में शपथ तक नहीं ले सकता। राजस्थान की जनता पर अपमान का यह काला टीका आखिर कब तक लगा रहेगा? बातें तो बहुत हैं दोस्तो! मगर अगले खत में। आज तो रामस्वरूप किसान का यह दूहा सुनलो-
भासा अपणी बोलियो, जे चावो थे मान।
राजस्थानी कम नहीं, कम नहीं राजस्थान॥
आपरो
-सत्यनारायण सोनी, व्याख्याता (हिन्दी)
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, परलीका।
aapnibhasha@gmail.com
Father day
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-*शंभु चौधरी*-
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
चाँद को वो खिलौना बना
खिलाते थे हमें,
हम खेलते ही रहे,...
5 हफ़्ते पहले