ये छन्द जुझारदान जी देथा, मिठङिया का कहा हुआ है सा....इस छन्द के आखिरी अन्तरे की तीसरी पंक्ति इस तरह है.....
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हमरे हिंगळाज हजुर हिंगोलज, जे पद रज वंदे जुझियो।
(हे) अजोनी अंबा हिंगलाज आशापुर, आप चंडी मुझ स्हाय आयो।।
बसंत में हर तरफ एक नई उमंग दृष्टीगोचर होती है। पेड़ पौधो में नव पल्लव विकसित होते है।नव जीवन का संचार होता है। इस समय रतिपति की मार सर्वाधिक होती है। इस बारे मे चार लाईन आप की नजर कर रहा हूं, अन्यथा न लें।
अनुपम छबी ओपणी अवनी, उमड़ी अंतस सहज उमंग।
चैत चांनणी सान चढाई, अणहद चाह ऊपनी अंग।।(१)
ऊतर अनंग डील में आयो, आळस रंभ मरोड़े अंग।
देह अलौकिक जोती दीपै, रूपाळी झीली सतरंग।।(२)
ऊभी ठिठक चांदणी आछी, रात झकौळी रूपे रंग।
ठाढो पवन निलज ठिठकारो, आद इचपळो उतन अनंग।।(३)
हिचकै,सिहरे,लाजै,हालै, धण भौळी डूबी धव ध्यांन।
बादीलै वश झूम बावळी, गाफल बिसरी गाभा ग्यान।।(४)
इन्द्रलोक कर आय ऊतरी, सुरबाला साजै सिणगार।
मदभीना मारू दिस मलफै, होय रही वालौ गळहार।।(५)
ऊठी उमस अबोली अंतस, परतख प्रगटी चैहरे पूर।
चमक लिलाड़, देह चंचळता, नैह प्रकट दमकंतै नूर।।(६)
चित्त अचंचळ चाळै चड़ियौ, वेध काळजो घाली वाट।
उरड़ डील आगे हुय अड़ियौ, खुल्यौ राज रलियावण खाट।।(७)
अधरां निवतो दियो अचांचक, आद विसरै धण आचार।
समपै सुघड़ शरीर सलूणो, लाज छोड़ सुन्दर लाचार।।(८)
प्रणय मनोरथ कीना पूरा, पिव पायौ सत प्रीत प्रमांण।
विखमी वैळ महर लिखमीवर, धण री अरजी दीधो ध्यांन।।(९)