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कवि 'गंग तो एक गोविंद भजै

Rao GumanSingh Guman singh

मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै, सुख साज सनेह समोइ रही।
सुचि चीकनी चारु चुभी चित मैं, भरि भौन भरी खुसबोई रही॥
कवि 'गंग जू या उपमा जो कियो, लखि सूरति या स्रुति गोइ रही।
मनो कंचन के कदली दल पै, अति साँवरी साँपिन सोइ रही॥

करि कै जु सिंगार अटारी चढी, मनि लालन सों हियरा लहक्यो।
सब अंग सुबास सुगंध लगाइ कै, बास चँ दिसि को महक्यो॥
कर तें इक कंकन छूटि परयो, सिढियाँ सिढियाँ सिढियाँ बहक्यो।
कवि 'गंग भनै इक शब्द भयो, ठननं ठननं ठननं ठहक्यो॥

लहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सुचंदन बृच्छ की छाँह सुखाई॥
मोगरे माहिं लपेटि धरी 'गंग बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच को ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव न जाई॥
रती बिन राज, रती बिन पाट, रती बिन छत्र नहीं इक टीको।

रती बिन साधु, रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को॥
रती बिन मात, रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
'गंग कहै सुन साह अकब्बर, एक रती बिन पाव रती को॥
एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।

अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥
कवि 'गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की।
जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकब्बर की॥


(बस इस बात से जहांगीर ने कविराज को मरवा दिया और उसका समस्त साहित्य भी नष्ट करवा दिया. मुश्किल से चार पांच कविताएं ही मोजूद है)

दारु दाखा रो

Rao GumanSingh Guman singh

भर लाये कलाळी दारु दाखा रो
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो दारु पीओ रंग रमो
और रात राखो नैन
दोखी थारा जल मारे
सुख पावैला नैन
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो

ऊँचो पावा ढोलियो
और झीनी पड़ी निवार
मृगा नैनी अरज करै
रमिया राजकुमार
शीशी तो डग डग करै
और प्यालो करै पुकार
मृगा नैनी अर्ज्या करै
पीवो राज कुमार
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो
के 
दारु मेड़ते
तो के 
दारु अजमेर
म्हारा रठोदा अरोग्सी
सोमो राखो सेन
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो
साजन आया हे सखी तो
कांई भेंट कराँ
थाल भरयो गज मोतिया
ऊपर नैन धरां
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो