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पर्यावरण रा दूहा

Rao GumanSingh Guman singh

प्रदूशण नै रोकणो, सै सूं पैलो काम।
जे काबू ओ नीं हुयो, बचा नीं सके राम।।
 रंग-बिरंगो जैर‘तो, रच रैयो पोलीथीन।
 फैषन, सुविधा कारणै, जीवण मौत अधीन ।।
नई है सुद्ध खावणो, नीं है निरमल नीर।
आभै में विस घुल रयो, हवा जै‘र रा तीर।।
 दिवलो एक बाट रो, जल सी आखी रात।
 दियो जी चार बाट रो, बुझती आधी रात।।
इण धरा री सुदंरता, रंग-रूप-रस पाण।
जे प्रकशित मिटती गई, जगती हुसी मसाण।।
 धरती सै री मात है, आभो है जी तात।
 मा- जाया सा बिरछ है, मत कर इण सूं घात।
धुंआ पी-पी धुंआ हुया, तन धुंएं री लकीर ।
तन-मन धन धुंआ लगा, हुयग्यो फकीर ।।
 घायल धरा टसक रयी, हुयो गगन बीमार,
 सागर रो दम धुट रयो, नदियां हाहाकार
सिवजी दाई जै‘र पी, इमरत बाँटे रूख।
कामधेनु अे कलपतरू, मत काटो थे रूख।।
 जांभा जी सूं सीख लो, खेजडली री आण।
 हरा रूंख जे काट सो, हुय सी देस मसाण।।
धरती मा रो दूध पी, बधै अे हरिया रूंख।
मा-जाया नै बाढ थे, बालो मा री कूख।।
 इकीसवीं मे रैवणिया, सुणो सदी रो ग्यान।
 आज लगाओं बन हरा, भविय मिलै बरदान।।
गगन-पवन, जल अर धरा, बणिया जै‘री दंस।
मिनख जमीं जलमा रया, धश्तराश्ट्री बंस।।
 जठै-जठै आदम गयो, मैल बिखरी जाण।
 गंग, हिमालो, चांद ई, मैला मिनखा पाण।।
नीं मेला, ना मगरिया, नई तीज-त्योहार।
सावण नीं, फागण नई, किंया करै सिणगार।।
 भोर कुंकमिया नई, केसरिया नीं सांझ।
 मोती सा दिनडा कठै, नीं चांदणिया रात



लक्ष्मीनारायण रंगा

बूढ़ी माई बापरी, हरखी धरा समूल

Rao GumanSingh Guman singh

आसाढ़ री पैली बिरखा साथै धरती पर एक जीव उतरै। बेजां फूटरो, बेजां कंवळो अर बेजां नाजक। नाजक इत्तो कै घास पर पळका मारती ओस नै परस सकां पण इण नै परसतो हाथ धूजै। आ टीबां पर रमती ओस ई है। लाल ओस। जियां ओस तावड़ो नीं सैय सकै अर सूरज री किरणां रै रथ पर सवार होय'र इण लोक सूं उण लोक सिधार ज्यावै। उणी भांत ओ जिनावर भी तावडिय़ै सूं बचण सारू बूई-बांठ अर घास-पात री सरण में चल्यो जावै। कैय सकां, टीबां रै लोक सूं बांठां रै लोक सिधार ज्यावै। अर जद ठंड हुवै, पाछो ई टीबां नै मखमली करद्यै। 
आपणी भाषा में आ बूढ़ी माई बजै। तीज, सावण री डोकरी, थार री बूढ़ी नानी अर ममोल इणरा ई नांव। हिंदी में इणनै वीर-बहूटी अर इंद्रवधू अनै अंग्रेजी में रेड वेलवेट माइट कैवै। जीव विज्ञान री दीठ सूं ओ संधि पाद विभाग री लूना श्रेणी में वरूथी वर्ग में द्रोम्बी डायोडी परिवार में डायनाथोम्बियम वंस रो जीव है। इणरो हाड-पांसळी बायरो डील घणो लचीलो। पैली बिरखा री टेम बूढ़ी माई जमीं में इंडा देवै। आठ पौर में बचिया बारै निकळै। ऐ जमीं रै मांय-मांय नान्हा-नान्हा जीवां नै खाय'र पळै। अर सूरज उगाळी रै साथै बारै टुरता-फिरता निगै आवै। जद सूरज छिपै, पाछा ई जमीं में बड़ ज्यावै। इणरै आठ पग। पण नखराळी चाल। संकोची सभाव। जकी छेड़्यां छापळै। डील पर रेशम सूं कंवळा लाल बाळ। इणरो गात इत्तो कंवळो कै चित्रण करतो कवि कतरावै। इत्ता कंवळा सबद कठै लाधै? अर कठै लाधै इत्तो कंवळो भाव, जिणसूं इणरो कंवळो डील अभिव्यक्त होय सकै। इणनै किणरी उपमा देवै? इसो उपमान कठै ढूंढै? मखमल? ना! कठै मखमल अर कठै बूढ़ी माई! कठै राम-राम अर कठै टैं-टैं। हां, मां रै मोम सरीखै दिल री कंवळाई सूं मींड सकां आपां इणनै। पण आ उपमा ई बेमेळ है। क्यूंकै वस्तुगत खासियत री भावगत खासियत सूं तुलना अपरोगी लागै। ईयां कै बारली विसेसता नै भीतरली विसेसता सूं तोलणो फिट कोनी बैठै। अब रैयी बात इण रै फूटरापै री। फूटरी इत्ती कै देख्यां जीवसोरो हुवै। हथाळी पर लेवण नै जी करै। पण इण रो रूप बिगड़ण रै भय सूं कदे-कदास ई अर बा ई अणूंती सावचेती सूं पकड़'र हथाळी पर धरां। आ हाथ में लेयां मैली हुवै। इण रै रूप रो पार नीं। टीबां पर हवळै-हवळै चालती बूढ़ी माई लाल जोड़ै में लाल बीनणी-सी लागै। जकी रूप रै रसियां नै आप कानी खींचै। आ टाबरां नै घणी प्यारी लागै। वै इणनै हथाळी पर राखै अर घणा लाड-कोड करै। बा पंजा भेळा कर्यां हथाळी पर पड़ी रैवै। टाबर नाचता-कूदता गावै- 'तीज-तीज थारो मामो आयो, आठूं पजां खोल दे।' आओ, आपणी भाषा रै दूहां में इणरो बिड़द बखाणां! 

बूढ़ी माई बापरी, हरखी धरा समूल। 
जाणै आभै फैंकिया, गठजोड़ै पर फूल॥ 

रज-रज टीबां में रमै, बिरखा मांय ममोल। 
जाणै मरुधर ओढियो, चूंदड़ आज अमोल॥ 

चालै धरती सूंघती, बूढ़ी माई धीम। 
आई खेत विभाग सूं, माटी परखण टीम॥ 

बूढ़ी माई आ नहीं, झूठो बोलै जग्ग। 
इंदराणी रै नाथ रो, पड़ग्यो हूसी नग्ग॥ 


Ramswaroopji kisan

कवि 'गंग तो एक गोविंद भजै

Rao GumanSingh Guman singh

मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै, सुख साज सनेह समोइ रही।
सुचि चीकनी चारु चुभी चित मैं, भरि भौन भरी खुसबोई रही॥
कवि 'गंग जू या उपमा जो कियो, लखि सूरति या स्रुति गोइ रही।
मनो कंचन के कदली दल पै, अति साँवरी साँपिन सोइ रही॥

करि कै जु सिंगार अटारी चढी, मनि लालन सों हियरा लहक्यो।
सब अंग सुबास सुगंध लगाइ कै, बास चँ दिसि को महक्यो॥
कर तें इक कंकन छूटि परयो, सिढियाँ सिढियाँ सिढियाँ बहक्यो।
कवि 'गंग भनै इक शब्द भयो, ठननं ठननं ठननं ठहक्यो॥

लहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सुचंदन बृच्छ की छाँह सुखाई॥
मोगरे माहिं लपेटि धरी 'गंग बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच को ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव न जाई॥
रती बिन राज, रती बिन पाट, रती बिन छत्र नहीं इक टीको।

रती बिन साधु, रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को॥
रती बिन मात, रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
'गंग कहै सुन साह अकब्बर, एक रती बिन पाव रती को॥
एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।

अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥
कवि 'गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की।
जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकब्बर की॥


(बस इस बात से जहांगीर ने कविराज को मरवा दिया और उसका समस्त साहित्य भी नष्ट करवा दिया. मुश्किल से चार पांच कविताएं ही मोजूद है)

दारु दाखा रो

Rao GumanSingh Guman singh

भर लाये कलाळी दारु दाखा रो
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो दारु पीओ रंग रमो
और रात राखो नैन
दोखी थारा जल मारे
सुख पावैला नैन
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो

ऊँचो पावा ढोलियो
और झीनी पड़ी निवार
मृगा नैनी अरज करै
रमिया राजकुमार
शीशी तो डग डग करै
और प्यालो करै पुकार
मृगा नैनी अर्ज्या करै
पीवो राज कुमार
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो
के 
दारु मेड़ते
तो के 
दारु अजमेर
म्हारा रठोदा अरोग्सी
सोमो राखो सेन
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो
साजन आया हे सखी तो
कांई भेंट कराँ
थाल भरयो गज मोतिया
ऊपर नैन धरां
पीवण वालो लाखा रो
भर लाये कलाळी 
दारु दाखा रो