गांव में एक लुगाई बुहारी निकाळ रैयी थी। चौक में उण रो धणी बैठ्यो थो। बा बुहारी काडती-काडती उणरै कनै आई तो बोली, 'परै सी सरकियो।'
आदमी उठकै पौळी में आगो। लुगाई भी बुहारी काडती-काडती पौळी में आगी और धणी नै बोली, 'आगै नै सरकियो दिखां।'
आदमी बारलै चौक में आगो। थोड़ी ताळ पछै बठै भी आगै सरकणै की बात कैयी। बो उठकै घरां रै बारणै दरूजै पर आगो अर चबूतरै पर बैठगो। लुगाई बुहारती-बुहारती घरां कै बारै आई तो पति नै बोली, 'सरकियो दिखां।'
आदमी आखतो होय'र मुंबई चल्यो गयो। बठै सूं चिट्ठी लिखी- 'अब भी तेरै अड़ूं हूं कै और आगै सरकूं? आगै समंदर है, देख लिए।'
आज रो औखांणो
संपत हुवै तो घर, नींतर भलो परदेस।
प्रस्तुति : सत्यनारायण सोनी अर विनोद स्वामी, परलीका।
Father day
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-*शंभु चौधरी*-
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
चाँद को वो खिलौना बना
खिलाते थे हमें,
हम खेलते ही रहे,...
5 हफ़्ते पहले
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