
फट जावे धरा धसूं मिल जावे गर माग।।
हूं खप जाती खग तले, हूं कट जाती उण ठौड़।
बोटी बोटी बिखरती पण रहती रण राठौड़।।
हेली राजमहल रा दीपक दो बुजाय।
उजासो किणने अजसे पीव घर आया धाय।।
राठौड़ा किम रण थने भायो नहीं भरतार।
थे रहवो रंग महल में, मन देवो तलवार।।
राठौड़ रण सूं भागयो शोभे नहीं सुभट्ट।
इण कायरता उपेर रोवे अब रजवट।।
हिवड़ो खूब हरकतो जे आतो कट शीश।
सतियां भेली शोभती सुणो मरूधरधीश।।
साभार:- कविवर श्री हनुवन्तसिंघ देवड़ा पुस्तक का नाम "सिंहनाद"
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