मह वरसे नही मेह, पड़े असमान धरा पर।
राह थके खगराज, अखे बलराजा उत्तर।
हेमगिर ऊनो हुवे, वके झूठो दुरवासा।
अत सितळ व्है अगन, प्रगट नह भाण प्रकासा।
सामंप्रत देख वहतो सगर, घबरावे वांगा घङा।
(तो)समरिया 'गँग' अबखी समै, बेल न आवे खुबङा।। १।।
जे नृप धू डग जाय, गणो डगमडे मेर गिर।
गोरख भुले गयान, ध्यान तप भुले जटधर।
खारो व्है दध खीर, दखो मीठो खारो दध।
जुजठल भाखे झुठ, वळे लखियो पलटे वध।
सैंस तज भार जावे सरक, धरती व्है उथल धङा।
समरिया 'गंग' अबखी समै, (जे) बेल न आवे खुबङा ॥२॥
जळनद तजे म्रजाद, प्रगट गंगेव तजे पण।
भीम तजे भाराथ, जंग सर चुके अरजण।
करगां माठो करण, जोओ गुडळो गंगजळ।
पंथ थके सपतास, सुणे नही पाबु सावळ।
म्रगराज घास खावे मुदे, मारे लाता मरगङा।
समरिया 'गंग' अबखी समै, (जे) बेल न आवे खुबङा।। ३।।
सत तज जावे सीत, हुवे बळहीणो हङमत।
जहर सरप जाय, जोओ छांङे लछमण जत।
गुणपत व्है बुधहीण, उकत सुरसत न आवे।
भोजन न मिटे भूख, भगति पहळाद न भावे।
श्रीराम बाण चुके संवर, खळ आसुर जुझे खङा।
(तो) समरिया 'गंग' अबखी समै, बेल न आवे खुबङा।। ४।।
..... क्रमश.....
गंगारामजी बोगसा 'सरवड़ी' कृत
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