Ratan Singh Shekhawat,
मानसून पूर्व की वर्षा की बोछारें जगह-जगह शुरू हो चुकी है | किसान मानसून का बेसब्री से इंतजार करने में लगे है | और अपने खेतो में फसल बोने के लिए घास,झाडियाँ व अन्य खरपतवार काट कर (जिसे राजस्थान में सूड़ काटना कहते है ) तैयार कर वर्षा के स्वागत में लगे है | बचपन में सूड़ काटते किसानो के गीत सुनकर बहुत आनंद आता था लेकिन आजकल के किसान इस तरह के लोक गीत भूल चुके है |
जटक जांट क बटक बांट क लागन दे हब्बिडो रै,
बेरी धीडो रै , हब्बिडो |
इस गीत की मुझे भी बस यही एक लाइन याद रही है | जिन गांवों के निवासी पेयजल के लिए तालाबों,पोखरों व कुंडों पर निर्भर है वहां सार्वजानिक श्रमदान के जरिए ग्रामीण गांव के तालाब व पोखर आदि के जल संग्रहण क्षेत्र (केचमेंट एरिया ) की वर्षा पूर्व सफाई करने में जुट जाते है व जिन लोगों ने अपने घरों व खेतो में व्यक्तिगत पक्के कुण्ड बना रखे है वे भी वर्षा पूर्व साफ कर दिए जाते है ताकि संग्रहित वर्षा जल का पेयजल के रूप में साल भर इस्तेमाल किया जा सके |
शहरों में भी नगर निगमे मानसून पूर्व वर्षा जल की समुचित निकासी की व्यवस्था के लिए जुट जाने की घोषणाए व दावे करती है | ताकि शहर में वर्षा जल सडको पर इक्कठा होकर लोगों की समस्या ना बने हालाँकि इनके दावों की पहली वर्षा ही धो कर पोल खोल देती है |
कुल मिलाकर चाहे किसान हो या पेयजल के लिए वर्षा जल पर निर्भर ग्रामीण या शहरों की नगर पलिकाए या गर्मी से तड़पते लोग जो राहत पाने के लिए वर्षा के इंतजार में होते है , सभी वर्षा ऋतु के शुरू होने से पहले ठीक उसी तरह वर्षा के स्वागत की तैयारी में जुट जाते है जैसे किसी घर में नई नवेली दुल्हन के स्वागत में जुटे हो | शायद इसीलिए राजस्थान के एक विद्वान कवि रेवतदान ने वर्षा की तुलना एक नई नवेली दुल्हन से करते हुए वर्षा को बरखा बिन्दणी ( वर्षा वधू ) की संज्ञा देते हुए ये शानदार कविता लिखी है :
लूम झूम मदमाती, मन बिलमाती, सौ बळ खाती ,
गीत प्रीत रा गाती, हंसती आवै बिरखा बिंनणी |
चौमासै में चंवरी चढनै, सांवण पूगी सासरै,
भरै भादवै ढळी जवांनी, आधी रैगी आसरै
मन रौ भेद लुकाती , नैणा आंसूडा ढळकाती
रिमझिम आवै बिरखा बिंनणी |
ठुमक-ठुमक पग धरती , नखरौ करती
हिवड़ौ हरती, बींद पगलिया भरती
छम-छम आवै बिरखा बिंनणी |
तीतर बरणी चूंदड़ी नै काजळिया री कोर
प्रेम डोर मे बांधती आवै रुपाळी गिणगोर
झूंटी प्रीत जताती , झीणै घूंघट में सरमाती
ठगती आवै बिरखा बिंनणी |
घिर-घिर घूमर रमती , रुकती थमती
बीज चमकती, झब-झब पळका करती
भंवती आवै बिरखा बिंनणी |
आ परदेसण पांवणी जी, पुळ देखै नीं बेळा
आलीजा रै आंगणै मे करै मनां रा मेळा
झिरमिर गीत सुणाती, भोळै मनड़ै नै भरमाती
छळती आवै बिरखा बिंनणी |
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Father day
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-*शंभु चौधरी*-
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
चाँद को वो खिलौना बना
खिलाते थे हमें,
हम खेलते ही रहे,...
5 हफ़्ते पहले
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