नवनीत गुर्जर
त्वरित टिप्पणी. वो बच्चे का रोना, खिलखिला कर हंसना! मां का डांटना..फिर पुचकारना। ..और चूल्हे पर दूध में उफाण आते ही बच्चे को चारपाई पर पटक कर भागना..। इस पूरे वात्सल्य में बोलता कोई नहीं। न मां, न बच्च। लेकिन दोनों ही समझते हैं एक-दूसरे को। मन की भाषा को। मातृभाषा क्या है? यही तो है। जिसे अबोला बच्च समझता है। खूंटे से बंधी गायें जानती हैं। आखिर इस मर्म को सरकार क्यों नहीं समझती।
हो सकता है सरकार ही सही हो! क्योंकि उसमें बैठे मंत्रियों, अफसरों के कान तो राजस्थानी ही हैं, सुनने की क्षमता राजनीतिक। उन्हें वही बात सुनाई देती है, जो वे सुनना चाहते हैं। जैसे- सरकार बहुत अच्छे काम कर रही है। आपका ‘वो’ भाषण जोरदार था। हंसते वक्त आप बहुत अच्छे लगते हैं।..अरे!
एक बच्चे को हंसा कर तो देखिए। अपनी भाषा में। थारी-म्हारी राजस्थानी मं। पूरे जीवन की सुंदरता नजर आ जाएगी। ऐसा नहीं है कि कोई मंत्री राजस्थानी नहीं बोलता। सबके सब इसी भाषा में अपनापन पाते हैं। लेकिन मंच से नीचे। मंच पर चढ़ते ही भाषा बदल जाती है। हां! जब गांव-ढाणियों में वोट मांगने जाते हैं, तब ठेठ राजस्थानी बोलते हैं। ..फिर भी शिक्षा मंत्री कहते हैं- बच्चों को हिंदी में ही पढ़ाया जाना चाहिए। हैरत इस बात की है कि वे यह बात भी राजस्थानी में ही कहते हैं।
कितनी समृद्ध और मीठी है यह भाषा। इसके लोकगीत सर्वाधिक शास्त्रीय भी। उतने ही मीठे भी। इसका लहजा महाराणा प्रताप जितना बहादुर भी। पन्नाधाय जितना ममतामयी भी। इस सबके बावजूद अगर किसी राजस्थानी को अपनी मातृभाषा के लिए किसी सरकार से अनुनय-विनय करनी पड़े तो यकीनन उस सरकार को अपने बारे में सोचना चाहिए।
Father day
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-*शंभु चौधरी*-
पिता, पिता ही रहे ,
माँ न बन वो सके,
कठोर बन, दीखते रहे
चिकनी माटी की तरह।
चाँद को वो खिलौना बना
खिलाते थे हमें,
हम खेलते ही रहे,...
1 हफ़्ते पहले
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