ओ लुळ ओ झुक
ओ लुळ जाई रे हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
ओ तने सिल पे बटांऊं हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
क्यारियां में बाऊं केवडो़ खेताँ में बाऊं हरियो पोदिनो
ओ लुळ ओ झुक
ओ लुळ जाई रे हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
माथा पे ल्याई केवडो़ झोळी में ल्याई हरियो पोदिनो
ओ लुळ ओ झुक
ओ लुळ जाई रे हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
सासूजी ने भावे केवडो़ सुसराजी ने भावे हरियो पोदिनो
ओ लुळ ओ झुक
ओ लुळ जाई रे हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
जेठजी ने भावे केवडो़ जेठाणी ने भावे हरियो पोदिनो
ओ लुळ ओ झुक
ओ लुळ जाई रे हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
देवेरजी ने भावे केवडो़ देवरानी ने भावे हरियो पोदिनो
ओ लुळ ओ झुक
ओ लुळ जाई रे हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
ओ तने सिल पर बटांऊं हरिया पोदीना
ओ झुक जाई रे हरिया पोदीना
टूटे बाजूडा री लूम लड़ उलझी उलझी जाए
टूटे बाजूबंद री लूम लड़ उलझी उलझी जाए
कोई पंचरंगी लहेरिया रो पल्लो लहेराए
धीरे चालो नी बायरिया हौळे हालो नी बयारिया
झालो सहयो नही जाए
टूटे बाजूडा री लूम लड़ उलझी उलझी जाए
टूटे बाजूबंद री लूम लड़ उलझी उलझी जाए
कोई पंचरंगी लहेरिया रो पल्लो लहेराए
धीरे चालो नी बायरिया हौळे हालो नी बयारिया
झालो सहयो नही जाए
लागी प्यारी फुलवारी आतो झूम झूम जाए
ल्याई गोरी रो संदेशो घर आओ नी सजन
बैरी आंसुडा रो हार बिखर नही जाए
कोई चमकी री चुंदरी में सळ पड़ जाए
धीरे चालो नी बायरिया हौळे हालो नी बयारिया
झालो सहयो नही जाए
धीरे चालो नी बायरिया हौळे हालो री बयारिया
झालो सहयो नही जाए
आज एक महत्वपूर्ण प्रश्न मारवाड़ी समाज के साथ जुड़ सा गया है। - क्या वह
उधार की जिन्दगी जी रहा है, या किसी के एहशान के टूकड़ों पर पल रहा है?
या फिर किसी हमदर्दी और दया का पात्र तो नहीं? मारवाड़ी समाज का प्रवासीय
इतिहास के तीन सौ वर्षों के पन्ने अभी तक बिखरे पड़े हैं। न तो समाज के
अतीत को इसकी चिंता थी, नही वर्तमान को इसकी फिक्र। घड़ी की टिक-टीक ने
इस सन्नाटे में अचानक हलचल पैदा कर दी है। - विभिन्न प्रन्तों में हो रहे
जातिवाद, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता की आड़ में मारवाड़ी समाज के घ्रों को
जलाना एवं लूट लेना । साथ ही, राजनैतिक दलों का मौन रहना, मुगलों के
इतिहास को नए सिरे से दोहराते हुए स्थानीय आततायियों के रूप में
मौकापरस्त लोग एसी हरकतों से कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं।
'जात- जडूला' या 'गठजोड़
यह प्रश्न आज के परिप्रेक्ष्य में हमारे मानस-पटल पर उभर कर सामने आता है
कि अपने मूल स्थान से हमने जन्म-जन्मान्तर का नाता तोड़-सा लिये। पहले तो
समाज के लोग साल में एक दफा ही सही 'देस' जाया करते थे। अब तो बच्चों को
पता ही नहीं कि उनके पूर्वज किस स्थान के थे। एक समय था जब 'जडूला' या
'गठजोड़ की जात' देस जाकर ही दिया जाता था, समाज में कई ऎसे उदाहरण हैं,
जिसमें बाप-बेटा और पोता, तीनों का 'जडूला' और 'गठजोड़ की जात' एक साथ
ही 'देस' जाकर दी । यहाँ यह कहना जरूरी नहीं कि हमारा अपने मूल स्थाना
से कितना गहरा संबंध रहा और कितना फासला है। इन दिनों 'जडूला' तो
स्थानीय प्रचलन एवं मान्यताओं से जूड़ती जा रही है। जो जिस प्रदेश में या
देश में है, वे उस प्रदेश या देश के अनुकुल अपनी-अपनी अलग प्रथा बनाते जा
रहे हैं, आने वाली पीढ़ी का अपने मूल प्रदेश से कितना मानसिक लगाव रह
जायेगा, इस पर संदेह है। वैसे भी एक स्थति और भी है, वर्तमान को ही देखें
- 'मारवाड़ी कहने को तो अपने आपको रास्थानी मानते हैं,परन्तु राजस्थान के
लोग इसे मान्यता नहीं देते। यदि कोई प्रवासी राजस्थानी वहाँ जाकर पढ़ना
चाहे तो उसे राजस्थानी नहीं माना जाता। क्योंकि उसका मूल प्रान्त
राजस्थान नहीं है। यह कैसी व्यवस्था ? असम , बंगा़ल, उडिसा जैसे अहिन्दी
भाषी प्रान्त इनको प्रवासी मानते हैं, और राजस्थान इनको अपने प्रदेश का
नहीं मानता। असम में असमिया मूल के छात्र को और राजस्थान में राजस्थान
मूल के छात्रों को ही दाखिला मिलेगा तो यह कौम कहाँ जाय?
प्रान्तीय भाषा
मुड़िया में मात्रा की कमी के चलते हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य प्रन्तीय
भाषाओं ने इस प्रवासी समाज के अन्दर अपना प्रमुख स्थान ग्रहन कर लिया ।
कई प्रवासी मारवाड़ी परिवार ऎसे हैं जिनको सिर्फ बंगला, असमिया, तमील, या
उड़िया भाषा ही लिखाना, बोलना और पढ़ना आता है, कई परिवार में तो
राजस्थानी की बात तो बहुत दूर उनको हिन्दी भी ठीक से बोलना-पढ़ना नहीं
आता, लिखने की कल्पना ही व्यर्थ है।
पर्व-त्यौहार
बिहार में 'छठ पूजा' की बहुअत बड़ी मान्यता है,ठीक वैसे ही बंगाल मैं
'दुर्गा पूजा', 'काली पूजा', असम में 'बिहू उत्सव', महाराष्ट्र में 'गणेश-
महोत्सव, उड़ीसा में 'जगन्नाथ जी की रथयात्रा', दक्षिण भारत में 'ओणम-
पोंगल', राजस्थान में होली-दिवाली, गुजरात में डांडीया-गरबा, पंजाब में
'वैशाखी उत्सव' आदि पर्व व त्योहरों की विषेश मान्यता है, असके साथ ही
हिन्दू धर्म के अनुसार कई त्योहार मनाये जाते हैं जिसमें राजस्थान में
विषेशकर के राखी, गणगोर की विषेश मान्यता है, गणगोर तो राजस्थान व
हरियाणावासियो का अनुठा त्योहार माना जाता है। जैसे-जैसे मारवड़ी समाज के
लोग इन प्रान्तों में बसते गये, ये लोग अपने पर्व के साथ-साथ स्थानीय
मान्यताओं के पर्व व त्योहारों को अपनाते चले गये। बिहार के मारवाड़ी तो
छठ पूजा ठीक उसी तरह मानाने लगे, जैसे बिहार के स्थानीय समाज मानाते हैं
यहाँ यह बताना जरूरी है कि जो मारवाड़ी परिवार कालान्तर बिहार से उठकर
किसी अन्य प्रदेश में बस गये, वे आज भी छठ पूजा के समय ठीक वैसे ही बिहार
जाते हैं जैसे बिहार के मूलवासी इस पर्व को मनाने जाते हैं। अब विवशता यह
है कि राजस्थान के बिहार के मारवाड़ी को बिहारी, असम के मारवाड़ियों को
असमिया, बंगाल व उड़ीसा के मारावाड़ियों को बिहारी, बंगाली, असमिया, या
उड़िया समझते हैं, एवं स्थानीय भाषायी लोग मारवाड़ियों को राजस्थानी
मानते हैं। विडम्बना यह है,कि मारवाड़ी कहने को तो रजस्थानी है, परन्तु
राजस्थान के लोग इसे राजस्थानी नहीं मानते।
लोगों का भ्रम:
आम तौर पर लोगों को यह भ्रम है कि मारवाड़ी समाज एक धनी-सम्पन्न समाज है,
परन्तु सच्चाई इस भ्रम से कोसों दूर है। यह कहना तो संभव नहीं कि
मारवाड़ी समाज में कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, हाँ ! धनी
वर्ग का प्रतिशत इतर समाज के अनुपात में नहीं के बराबर माना जा सकता है।
उद्योग-व्यवसाय तो सभी समाज में कम-अधिक है। प्रवासी राजस्थानी, जिसे
हम देश के अन्य भागों में मारवाड़ी कह कर सम्बोधित करते हैं या जानते
हैं, अधिकतर छोटे-छोटे दुकानदार या फिर दलाली के व्यापार से जुड़े हुए
हैं, समाज के सौ में अस्सी प्रतिशत परिवार तो नौकरी-पेशा से जुड़े हुए
हैं, शेष बचे बीस प्रतिशत का आधा भा़ग ही संपन्न माना जा सकता है, बचे दस
प्रतिशत भी मध्यम श्रेणी के ही माने जायेगें। कितने परिवार को तो दो जून
का खाना भी ठीक से नसीब नहीं होता, बच्चे किसी तरह से संस्थाओं के सहयोग
से पढ़-लिख पाते हैं। कोलकाता के बड़ाबाजार का आंकलन करने से पता चलता है
कि किस तरह एक छोटे से कमरे में पूरा परिवार अपना गुजर-बसर कर रहा है।
इस समाज की एक खासियत यह है कि यह कर्मजीव समाज है, मांग के खाने की जगह
कमा कर खाना ज्याद पसंद करता है, समाज के बीच साफ-सुथरा रहना अपना
कर्तव्य समझता है, और कमाई का एक हिस्सा दान-पूण्य में खर्च करना अपना
धर्म। शायद इसलिए भी हो सकता है इस समाज को धनी समाज माना जाता हो, या
फिर विड़ला-बांगड़ की छाप इस समाज पर लग चुकी हो। ऎसा सोचना कि यह समाज
धनी समाज है, किसी भी रूप में उचित नहीं है। आम समाज की तरह ही यह समाज
भी है, जिसमें सभी तबके के लोग हैं , पान की दुकान, चाय की दुकान, नाई ,
जमादार, गुरूजी(शिक्षक), पण्डित जी (ब्राह्मण), मिसरानी ( ब्राह्मण की
पत्नी), दरवान, ड्राईवर, महाराज ( खाना बनाने वाले), मुनीम (खाता-बही
लिखने वाला) ये सभी मारवाड़ी समाज में होते हैं इनकी आय भारतीय मुद्रा के
अनुसार आज भी दो - तीन हजार रूपये प्रतिमाह (कुछ कम-वेसी) के आस-पास ही
आंकी जा सकती है। यह बात सही है कि समाज में सम्पन्न लोग के आडम्बर से
गरीब वर्ग हमेशा से शिकार होता आया है, यह बात इस समाज पर भी लागू होती
है।
आडम्बर:
मारवाड़ी समाज के एक वर्ग को संपन्न समाज माना जाता है, इनके कल-कारखाने,
करोबार, उद्योग, या व्यवसाय में आय की कोई सीमा नहीं होती, ये लो़ग जहाँ
एक तरफ समाज के सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते पाये जाते
हैं वहीं दूसरी तरफ अपने बच्चों की शादी-विवाह, जन्मदिन का जश्न मनाने
में, या सालगिरह के नाम पर आडम्बर को भी मात देने में लग जाते हैं, उस
समय पता नही इतना धन कहाँ से एकाएक इनके पास आ जाता है, जिसे पानी की तरह
बहाने में इनको आनन्द आता है, अब कोलकाता में तो बहार से आकर शादी करना
एक फैशन सा बनते जा रहा है, बड़े-बड़े पण्डाल, लाखों के फूल-पत्ती, लाखों
की सजावट, मंहगे-मंहगे निमंत्रण कार्ड, देखकर कोई भी आदमी दंग रह जायेगा।
सबसे बड़ा हास्यास्पद तब लगता है, जब कोई समाज की सभाओं में इन आडम्बरों
के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें तो करता है, जब खुद का समय आता है तो यही
व्यक्ति सबसे ज्यादा अडम्बर करते पाया जाता है। एक-दो अपवादों को छोड़
दिया जाय तो अधिकांशतः लोग समाज के भीतर गन्दगी फैलाने में लगे हैं। इनका
इतना पतन हो चुका है कि इनको किसी का भय भी नहीं लगता। समाज के कुछ दलाल
किस्म के हिन्दी के पत्रकार भी इनका साथ देते नजर आते हैं। चुंकि उनका
अखबार उनके पैसे से चलता है इसलिये भी ये लाचार रहतें हैं, दबी जुबान
थोड़ा बोल देते हैं परन्तु खुलकर लिखने का साहस नहीं करते। इन पत्रकारों
की मानसिकता इतनी गिर चुकी है कि, कोई भी इनको पैसे से खरिद सकता है,
भाई ! पेट ही तो है, जो मानता नहीं। अखबार इनलोगों से चलता है, इनका घर
इनकी दया पर चलता है, तो कलम का क्या दोष वह तो इनके दिमाग से नहीं इनके
हाथ से चलती है।
इन पत्रकारों के पास न तो कलम होती है, न ही हाथ य लुल्ले पत्रकार होते
हें , इनके पास सिर्फ कगज छापने की एक लोहे की मशीन भर होती है, बस ,
भगवान ही इनका मालिक होता है, दिमाग भी इतना ही दिया कि ये बस मजे से खा
सकते हैं। इनका समाज में किसी भी प्रकार का सामाजिक दायित्व नहीं के
बराबर है।
'धरती धौरां री...
-शम्भु चौधरी-
कोलकात्ता 15.5.2008 : आज शाम पाँच बजे श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के
कोलकात्ता स्थित उनके निवास स्थल 6, आशुतोष मखर्जी रोड जाना था । ‘समाज
विकास’ का अगला अंक श्री सेठिया जी पर देने का मन बना लिया था, सारी
तैयारी चल रही थी, मैं ठीक समय पर उनके निवास स्थल पहुँच गया। उनके
पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया जी से मुलाकत हुई। थोड़ी देर उनसे बातचीत
होने के पश्चात वे, मुझे श्री सेठिया जी के विश्रामकक्ष में ले गये ।
विस्तर पर लेटे श्री सेठिया जी का शरीर काफी कमजोर हो चुका है, उम्र के
साथ-साथ शरीर थक सा गया है, परन्तु बात करने से लगा कि श्री सेठिया जी
में कोई थकान नहीं । उनके जेष्ठ पुत्र भाई जयप्रकाश जी बीच में बोलते
हैं, - ‘‘ थे थक जाओसा....... कमती बोलो ! ’’ परन्तु श्री सेठिया जी
कहाँ थकने वाले, कहीं कोई थकान उनको नहीं महसूस हो रही थी, बिल्कुल
स्वस्थ दिख रहे थे । बहुत सी पुरानी बातें याद करने लगे। स्कूल-कॉलेज,
आजादी की लड़ाई, अपनी पुस्तक ‘‘अग्निवीणा’’ पर किस प्रकार का देशद्रोह का
मुकदमा चला । जयप्रकाश जी को बोले कि- वा किताब दिखा जो सरकार निलाम करी
थी, मैंने तत्काल देवज्योति (फोटोग्रफर) से कहा कि उसकी फोटो ले लेवे ।
जयप्रकाश जी ने ‘‘अग्निवीणा’’ की वह मूल प्रति दिखाई जिस पर मुकदमा चला
था । किताब के बहुत से हिस्से पर सरकारी दाग लगे हुऐ थे, जो इस बात का आज
भी गवाह बन कर सामने खड़ा था । सेठिया जी सोते-सोते बताते हैं - ‘‘ हाँ!
या वाई किताब है जीं पे मुकदमो चालो थो....देश आजाद होने...रे बाद सरकार
वो मुकदमो वापस ले लियो ।’’ थोड़ा रुक कर फिर बताने लगे कि आपने करांची
में भी जन अन्दोलन में भाग लिया था । स्वतंत्रा संग्राम में आपने जिस
सक्रियता के साथ भाग लिया, उसकी सारी बातें बताने लगे, कहने लगे ‘‘भारत
छोड़ो आन्दोलन’’ के समय आपने करांची में स्व.जयरामदास दौलतराम व
डॉ.चैइथराम गिडवानी जो कि सिंध में कांग्रेस बड़े नेताओं में जाने जाते
थे, उनके साथ करांची के खलीकुज्जमा हाल में हुई जनसभा में भाग लिया था,
उस दिन सबने मिलकर स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ.चैइथराम गिडवानी के
नेतृत्व में एक जुलूस निकाला था, जिसे वहाँ की गोरी सरकार ने कुचलने के
लिये लाठियां बरसायी, घोड़े छोड़ दिये, हमलोगों को कोई चोट तो नहीं आयी,
पर अंग्रेजी सरकार के व्यवहार से मन में गोरी सरकार के प्रति नफरत पैदा
हो गई । आपका कवि हृदय काफी विचलित हो उठा, इससे पूर्व आप ‘‘अग्निवीणा’’
लिख चुके थे। बात का क्रम टूट गया, कारण इसी बीच शहर के जाने-माने
समाजसेवी श्री सरदारमल कांकरियाजी आ गये। उनके आने से मानो श्री सेठिया
जी के चेहरे पे रौनक दमकने लगी हो । वे आपस में बातें करने लगे। कोई
शिथिलता नहीं, कोई विश्राम नहीं, बस मन की बात करते थकते ही नहीं, इस
बीच जयप्रकाश जी से परिवार के बारे में बहुत सारी बातें जानने को मिली।
श्री जयप्रकश जी, श्री सेठिया जी के बड़े पुत्र हैं, छोटे पुत्र का नाम
श्री विनय प्रकाश सेठिया है और एक सुपुत्री सम्पतदेवी दूगड़ है । महाकवि
श्री सेठिया जी का विवाह लाडणू के चोरडि़या परिवार में श्रीमती धापूदेवी
सेठिया के साथ सन् 1939 में हुआ । आपके परिवार में दादाश्री स्वनामधन्य
स्व.रूपचन्द सेठिया का तेरापंथी ओसवाल समाज में उनका बहुत ही महत्वपूर्ण
स्थान था। इनको श्रावक श्रेष्ठी के नाम से संबोधित किया जाता है। इनके
सबसे छोटे सुपुत्र स्व.छगनमलजी सेठिया अपने स्व. पिताश्री की भांति
अत्यन्त सरल-चरित्रनिष्ठ-धर्मानुरागी, दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी थे ।
समाज सेवा में अग्रणी, आयुर्वेद का उनको विशेष ज्ञान था ।
श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्षों से ज्यादा समय से बंगाल में है ।
पहले इनका परिवार 199/1 हरीसन रोड में रहा करता था । सन् 1973 से
सेठियाजी का परिवार भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20
के प्रथम तल्ले में निवास कर रहा है। इनके पुत्र ( श्री सेठियाजी से
पूछकर ) बताते हैं कि आप 11 वर्ष की आयु में सुजानगढ़ कस्बे से कलकत्ता
में शिक्षा ग्रहन हेतु आ गये थे। उन्होंने जैन स्वेताम्बर तेरापंथी
स्कूल एवं माहेश्वरी विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा ली, बाद में रिपन
कॉलेज एवं विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा ली । 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध
के समय शिक्षा अधूरी छोड़कर पुनः राजस्थान चले गये, वहाँ से आप करांची
चले गये । इस बीच हमलोग उनके साहित्य का अवलोकन करने में लग गये। सेठिया
जी और सदारमल जी आपस में मन की बातें करने में मसगूल थे, मानो दो दोस्त
कई वर्षों बाद मिले हों । दोनों अपने मन की बात एक दूसरे से आदान-प्रदान
करने में इतने व्यस्त हो गये कि, हमने उनके इस स्नेह को कैमरे में कैद
करना ही उचित समझा। जयप्रकाश जी ने तब तक उनकी बहुत सारी सामग्री मेरे
सामने रख दी, मैंने उन्हें कहा कि ये सब सामग्री तो राजस्थान की अमानत
है, हमें चाहिये कि श्री सेठिया जी का एक संग्राहलय बनाकर इसे सुरक्षित
कर दिया जाए, बोलने लगे - ‘म्हाणे कांइ आपत्ती’ मेरा समाज के सभी वर्गों
से, सरकार से निवेदन है कि श्री सेठियाजी की समस्त सामग्री का एक
संग्राहल बना दिया जाना चाहिये, ताकि हमारी आनेवाली पीढ़ी उसे देख सके,
कि कौन था वह शख्स जिसने करोड़ों दिलों की धड़कनों में अपना राज जमा लिया
था।
किसने ‘धरती धौरां री...’ एवं अमर लोक गीत ‘पातल और पीथल’ की रचना की
थी!
कुछ देर बाद श्री सेठिया जी को बिस्तर से उठाकर बैठाया गया, तो उनका
ध्यान मेरी तरफ मुखातिफ हुआ, मैंने उनको पुनः अपना परिचय बताने का प्रयास
किया, कि शायद उनको याद आ जाय, याद दिलाने के लिये कहा - शम्भु! -
मारवाड़ी देस का परदेस वालो - शम्भु....! बोलने लगे... ना... अब तने लोग
मेरे नाम से जानगा- बोले... असम की पत्रिका म वो लेख तूं लिखो थो के?,
मेरे बारे में...ओ वो शम्भु है....तूं.. अपना हाथ मेरे माथे पर रख के
अपने पास बैठा लिये। बोलने लगे ... तेरो वो लेख बहुत चोखो थो। वो राजु
खेमको तो पागल हो राखो है। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती बोल रही हो ।
शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा
लगता है। फिर अपनी बात बताने लगे- ‘आकाश गंगा’ तो सुबह 6 बजे लिखण
लाग्यो... जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी। हम तो बस उनसे सुनते रहना
चाहते थे, वाणी में सरस्वती का विराजना साक्षात् देखा जा सकता था। मुझे
बार-बार एहसास हो रहा था कि यह एक मंदिर बन चुका है श्री सेठियाजी का घर
। यह तो कोलकाता वासी समाज के लिये सुलभ सुयोग है, आपके साक्षात् दर्शन
के, घर के ठीक सामने 100 गज की दूरी पर सामने वाले रास्ते में नेताजी
सुभाष का वह घर है जिसमें नेताजी रहा करते थे, और ठीक दक्षिण में 300 गज
की दूरी पर माँ काली का दरबार लगा हो, ऐसे स्थल में श्री सेठिया जी का
वास करना महज एक संयोग भले ही हो, परन्तु इसे एक ऐतिहासिक घटना ही कहा जा
सकता है। हमलोग आपस में ये बातें कर रहे थे, परन्तु श्री सेठियाजी इन
बातों से बिलकुल अनजान बोलते हैं कि उनकी एक कविता ‘राजस्थान’ (हिन्दी
में) जो कोलकाता में लिखी थी, यह कविता सर्वप्रथम ‘ओसवाल नवयुवक’ कलकत्ता
में छपी थी, मानो मन में कितना गर्व था कि उनकी कविता ‘ओसवाल नवयुवक’
में छपी थी। एक पल मैं सोचने लगा मैं क्या सच में उसी कन्हैयालाल सेठिया
के बगल में बैठा हूँ जिस पर हमारे समाज को ही नहीं, राजस्थान को ही नहीं,
सारे हिन्दुस्थान को गर्व है।
मैंने सुना है, कि कवि का हृदय बहुत ही मार्मिक व सूक्ष्म होता है, कवि
के भीतर प्रकाश से तेज जगमगता एक अलग संसार होता है, उसकी लेखनी ध्वनि से
भी तेज रफ्तार से चलती है, उसके विचारों में इतने पड़ाव होते हैं कि सहज
ही कोई उसे नाप नहीं सकता, श्री सेठियाजी को देख ये सभी बातें स्वतः
प्रमाणित हो जाती है। सच है जब बंगलावासी रवीन्द्र संगीत सुनकर झूम उठते
हैं, तो राजस्थानी श्री कन्हैयालाल सेठिया के गीतों पर थिरक उठता है,
मयूर की तरह अपने पंख फैला के नाचने लगता है। शायद ही कोई ऐसा राजस्थानी
आपको मिल जाये कि जिसने श्री सेठिया जी की कविता को गाया या सुना न हो ।
इनके काव्यों में सबसे बड़ी खास बात यह है कि जहाँ एक तरफ राजस्थान की
परंपरा, संस्कृति, एतिहासिक विरासत, सामाजिक चित्रण का अनुपम भंडार है,
तो वीररस, श्रृंगाररस का अनूठा संगम भी जो असाधारण काव्यों में ही देखने
को मिलता है। बल्कि नहीं के बराबर ही कहा जा सकता है। हमारे देश में
दरबारी काव्यों की रचना की लम्बी सूची पाई जा सकती है, परन्तु, बाबा
नागार्जुन, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान, निराला, हरिवंशराय
बच्चन, भूपेन हजारिका जैसे गीतकार हमें कम ही देखने को मिलते हैं। श्री
सेठिया जी के काव्यों में हमेशा नयापन देखने को मिलता है, जो बात अन्य
किसी में भी नहीं पाई जाती, कहीं कोई बात तो जरूर है, जो उनके काव्यों
में हमेशा नयापन बनाये रखने में सक्षम है। इनके गीतों में लय, मात्राओं
का जितना पुट है, उतना ही इनके काव्यों में सिर्फ भावों का ही नहीं,
आकांक्षाओं और कल्पनाओं की अभिनव अभिव्यक्ति के साथ-साथ समूची संस्कृति
का प्रतिबिंब हमें देखने को मिलता है। लगता है कि राजस्थान का सिर गौरव
से ऊँचा हो गया हो। इनके गीतों से हर राजस्थानी इठलाने लगता हैं। देश-
विदेश के कई प्रसिद्ध संगीतकारों-गीतकारों ने, रवींद्र जैन से लेकर
राजेन्द्र जैन तक, सभी ने इनके गीतों को अपने स्वरों में पिरोया है।
‘समाज विकास’ का यह अंक यह प्रयास करेगा कि हम समाज की इस अमानत को
सुरक्षित रख पाएं । श्री कन्हैयालाल सेठिया न सिर्फ राजस्थान की धरोहर
हैं बल्कि राष्ट्र की भी धरोहर हैं। समाज विकास के माध्यम से हम राजस्थान
सरकार से यह निवेदन करना चाहेगें कि श्री सेठियाजी को इनके जीवनकाल तक न
सिर्फ राजकीय सम्मान मिले, इनके समस्त प्रकाशित साहित्य, पाण्डुलिपियों
व अन्य दस्तावेजों को सुरक्षित करने हेतु उचित प्रबन्ध भी करें।
- शम्भु चौधरी
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बाबू माणिकलाल डांगी राजस्थानी नाटकों के लेखन एवं प्रदर्शन में स्व. भरत व्यास, जमुनादास पचेरिया, बाबू माणिकलाल डांगी, कन्हैयालाल पंवार और नवल माथुर अगुवा रहे। कलकत्ता के ‘मूनलाइट थियेटर’ में राजस्थानी के अनेक नाटक मंचित हुए जिनकी आलम में बड़ी धूम रही।स्वतंत्रता संग्राम के परिप्रेक्ष्य में बाबू माणिकलाल डांगी के ‘जागो बहुत सोये’ नाटक का गहरा रंग रहा जो कलकत्ता में 1936 में खेला गया था और उन्हीं के 1940 में मंचस्थ ‘हिटलर’ नाटक ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। ब्रिटिश शासन द्वारा उनके ‘दुर्गादास राठौड़’ एवं ‘जय हिन्द’ नाटक पर रोक लगा दी गई थी, किन्तु वे इससे निराश नहीं हुए और उन्होंने चित्रकला की टेम्परा टेक्नीक की तरह रंगमंच के चित्रफलक पर ‘राजस्थनी साहस एवं वीरता’ के बिम्ब पूरी तरह बिम्बित किए। बाद में 1946 में ‘जय हिन्द’ नाटक को स्व. रफी अहमद किदवई ने पढ़ा और खेलने की अनुमति प्रदान की।स्वतन्त्रता के बाद बाबू माणिकलाल डांगी कलकत्ता से जोधपुर लौटे और उन्होंने वहाँ ‘दुर्गादास राठौड़’, ‘हैदराबाद’, ‘कश्मीर’, ‘जय हिन्द’, ‘आपका सेवक’, ‘घर की लाज’, एवं ‘धरती के सपूत’ हिन्दी और ‘राज आपणो’, ‘करसाँ रो कालजो’, ‘मेजर शैतानसिंह’ तथा ‘एक पंथ दो काज’ राजस्थानी नाटकों के प्रदर्शन किए। देश लौटकर उन्होंने ‘माणिक थियेटर’ की स्थापना की। राजस्थान सरकार ने भी नाट्य विधा के महत्व को समझा और फिर सर्वत्र नाटक खेले जाते रहे।उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतेन्दु हरिशचन्द्र, जयशंकर प्रसाद, नारायण प्रसाद बेताब, राधेश्याम कथावाचक और आगा है जैसे नाटककारों ने नाटकों में प्राचीन गरिमा और गौरव को प्रदर्शित किया। उनके नाटकों के विषय थे राष्ट्रीय चेतना और नवजागरण।नाटक ‘दुर्गादास राठौड’ का सात रुपये का टिकट तब डेढ़ सौ रुपये में बिकता था। बाद में कुछ मुस्लिम नेताओं के आग्रह पर बंगाल सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया हालांकि बड़ी संख्या में मुसलमान भी यह नाटक देखने आते थे।राजस्थानी भाषा का प्रथम नाटक भरत व्यास लिखित ‘रामू चनणा’ था जो 1941 में अल्फ्रेड थिएटर (दीपक) कलकत्ता में खेला गया। बाद में कन्हैयालाल पंवार के राजस्थानी भाषा में लिखे नाटकों का दौर चला। ‘ढोला मरवण’ नाटक अनेक बार खेला गया जिसमें वे स्वयं ‘ढोला’ की भूमिका अभिनीत किया करते थे। इसी श्रंखला में ‘चून्दड़ी’, ‘कुंवारो सासरो’, ‘बीनणी जोरा मरदी आई’ जैसे नाटक भी खेले गए। बंगाली एवं पंजाबी कलाकारों से राजस्थानी भाषा का शुद्ध उच्चारण करवाने का श्रेय उन्हीं को प्राप्त था। राजस्थानी नाटकों के मंचन पंडित ‘इन्द्र’ भरत व्यास, जमुनादास पचैरिया, माणिकलाल डांगी और कन्हैयालाल पवार ने निरन्तर किए।कलकत्ता के 30, ताराचन्द दत्त स्ट्रीट के ‘मूनलाइट थिएटर’ में राजस्थानी नाटकों का एक अनूठा क्रम था तो बम्बई के ‘मारवाड़ी थिएटर’ में अपना रूप।स्वाधीनता प्राप्ति के बाद के परिवर्तित परिवेश में राजस्थान में ‘संगीत-नाटक अकादमी’ जोधपुर में स्थापित की गई, जयपुर में ‘रवीन्द्र मंच’ बना। जनसम्पर्क विभाग और बाद में सहकारी विभाग में सहकार मंच अस्तित्व में आया। नाट्य लेखन को निरन्तरता प्रदान किए जाने के उद्देश्य से नाटक प्रतियोगिताएँ रखी जाने लगीं। मण्डल, परिषद और कला निकेतन आदि नामों से अनेक संस्थाएँ बनीं। राजस्थान में एमेच्योर संस्थाओं का जाल-सा बिछ गया तो हिन्दी-राजस्थानी के नाटकों के दर्शक बने रहे। रंगमंच के रास्ते से चल कर भारतीय सिनेमा के मुकाम तक पहुँचने वाले पहले राजस्थानी लोक कलाकार थे। उन्होंने नाटकों के साथ ‘सखी लुटेरा’, ‘नकली डाॅक्टर’, ‘शकुन्तला’, ‘लैला मजनूं’, ‘शीरी फराहाद’ आदि हिन्दी फिल्मों में भी अभिनय किया।जोधपुर में वि.सं. 1958 माह सुदी एकम को जन्मे सालगराम डांगी के सुपुत्र बाबू माणिकलाल डांगी के पितामह लक्ष्मीणदासजी ने राजस्थान में सर्वप्रथम ‘मारवाड़ नाटक कम्पनी’ की स्थापना की थी। उनका नाटक ‘द्रौपदी स्वयंवर’ जब पहले दिन खेल गया, उसी दिन बाबू माणिकलाल का जन्म हुआ था। साधारण शिक्षा के बावजूद वे छोटी उम्र में ही अपने चाचा फूलचन्द डांगी के साथ बाहर निकल गए और उन्होंने अमृतसर-लूणमण्डी की रामलीला देखी, बड़े प्रभावित हुए।बाबू माणिकलाल डांगी के ‘जागो बहुत सोये’ नाटक को 1942 में अंग्रेजों ने अमृतसर में और ‘हिटलर’ नाटक को सर सिकन्दर हयात की मिनिस्ट्री ने लाहौर में बंद करवा दिया था, फिर भी उन्होंने हैदराबाद, सिंध, शिकारपुर, कोटा, लरना और करांची शहरों में बड़े हौसले के साथ नाटक खेले।स्वतंत्रता के बाद भी बाबूजी ने ‘दुर्गादास’ और ‘जागो बहुत सोये’ नाटक खेले, जिन्हें चोटी के नेताओं की सराहना मिली। उन्होंने 1945 में दिल्ली में लाल किले के सामने ‘भारत की पुकार’ एवं ‘जय हिन्द’ नाटक खेले थे और 1946 में भी उनके ‘जय हिन्द’ नाटक को ‘डान’ पत्र की शिकायत पर अंग्रेजी हुकूमत ने बंद करवा दिया था।कलकत्ता में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। वे लघु भ्राता गणपतलाल डांगी के साथ जयपुर लौटे और 13 नवम्बर, 1964 को उनका स्वर्गवास हो गया।
धरती धोरां री ! आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,
धरती धोरां री !
सूरज कण कण नै चमकावै,
चन्दो इमरत रस बरसावै,
तारा निछरावल कर ज्यावै,
धरती धोरां री !
काळा बादलिया घहरावै,
बिरखा घूघरिया घमकावै,
बिजली डरती ओला खावै,
धरती धोरां री !
लुळ लुळ बाजरियो लैरावै,
मक्की झालो दे’र बुलावै,
कुदरत दोन्यूं हाथ लुटावै,
धरती धोरां री !
पंछी मधरा मधरा बोलै,
मिसरी मीठै सुर स्यूं घोलै,
झीणूं बायरियो पंपोळै,
धरती धोरां री !
नारा नागौरी हिद ताता,
मदुआ ऊंट अणूंता खाथा !
ईं रै घोड़ां री के बातां ?
धरती धोरां री !
ईं रा फल फुलड़ा मन भावण,
ईं रै धीणो आंगण आंगण,
बाजै सगळां स्यूं बड़ भागण,
धरती धोरां री !
ईं रो चित्तौड़ो गढ़ लूंठो,
ओ तो रण वीरां रो खूंटो,
ईं रे जोधाणूं नौ कूंटो,
धरती धोरां री !
आबू आभै रै परवाणै,
लूणी गंगाजी ही जाणै,
ऊभो जयसलमेर सिंवाणै,
धरती धोरां री !
ईं रो बीकाणूं गरबीलो,
ईं रो अलवर जबर हठीलो,
ईं रो अजयमेर भड़कीलो,
धरती धोरां री !
जैपर नगर्यां में पटराणी,
कोटा बूंटी कद अणजाणी ?
चम्बल कैवै आं री का’णी,
धरती धोरां री !
कोनी नांव भरतपुर छोटो,
घूम्यो सुरजमल रो घोटो,
खाई मात फिरंगी मोटो
धरती धोरां री !
ईं स्यूं नहीं माळवो न्यारो,
मोबी हरियाणो है प्यारो,
मिलतो तीन्यां रो उणियारो,
धरती धोरां री !
ईडर पालनपुर है ईं रा,
सागी जामण जाया बीरा,
अै तो टुकड़ा मरू रै जी रा,
धरती धोरां री !
सोरठ बंध्यो सोरठां लारै,
भेळप सिंध आप हंकारै,
मूमल बिसर्यो हेत चितारै,
धरती धोरां री !
ईं पर तनड़ो मनड़ो वारां,
ईं पर जीवण प्राण उवारां,
ईं री धजा उडै गिगनारां,
धरती धोरां री !
ईं नै मोत्यां थाल बधावां,
ईं री धूल लिलाड़ लगावां,
ईं रो मोटो भाग सरावां,
धरती धोरां री !
ईं रै सत री आण निभावां,
ईं रै पत नै नही लजावां,
ईं नै माथो भेंट चढ़ावां,
भायड़ कोड़ां री,
धरती धोरां री !
अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो। नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो
मेवाड़ी मान बचावण नै,
हूं पाछ नहीं राखी रण में
बैर्यां री खात खिडावण में,
जद याद करूँ हळदी घाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूँ
जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूँ
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मैं’लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता कोनी,
सोनै री थाल्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता कोनी,
ऐ हाय जका करता पगल्या
फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया
हिंदवाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिख स्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनैं
कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझूं कियां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूँ दिल्लीस तनैं समराट् सनेषो कैवायो।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो’ सपनूं सो सांचो,
पण नैण कर्यो बिसवास नहीं जद बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो
राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैर्यां रै मन रो कांटो हो बीकाणूँ पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो
धावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै,
म्है बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में
बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपती खून रगां में है ?
जंद पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी,
नीचै स्यूं धरती खसक गई
आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाळ संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं
राणा नै कागद रै खातर,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं
आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याळां रै सागै सोवै लो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो
बादळ री ओटां खोवैलो;
म्हे आज सुणी है चातगड़ो
धरती रो पाणी पीवै लो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो
कूकर री जूणां जीवै लो
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में
तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेज्यो आ बात कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां ही
राणा री आँख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूँ कायर हूँ
नाहर री एक दकाल हुई,
हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै
हूँ घोर उजाड़ां में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै,
हूँ रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़ै पण पाघ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादल री
जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै
बा कूख मिली कद स्याळी नै?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातग री चूंच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तलवार थकां
कुण रांड़ कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैर्यां री
छात्याँ में रैवैली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकै लो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्याँ ऐंठ्योड़ी
लोही री नदी बहा द्यूंला,
हूँ अथक लडूंला अकबर स्यूँ
उजड्यो मेवाड़ बसा द्यूंला,
जद राणा रो संदेष गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही।
मींझर से
मानसरोवर सूं उड़ हंसौ, मरुथळ मांही आयौ
धोरां री धरती नै पंछी, देख-देख चकरायौ
धूळ उड़ै अर लूंवा बाजै, आ धरती अणजाणी
वन-विरछां री बात न पूछौ, ना पिवण नै पाणी
दूर नीम री डाळी माथै, मोर निजर में आयौ,
हंसौ उड़कर गयौ मोर नै, मन रौ भेद बतायौ
अरे बावळा, अठै पड़्यौ क्यूं, बिरथा जलम गमावै
मानसरोवर चाल’र भाया, क्यूं ना सुख सरसावै
मोती-वरणौ निरमळ पाणी, अर विरछां री छाया
रोम-रोम नै तिरपत करसी, वनदेवी री माया
साची थारी बात सुरंगी, सुण सरसावै काया
जलम-भोम सगळा नै सुगणी, प्यारी लागै भाया
मरुधर रौ रस ना जाणै थूं, मानसरोवर वासी
ऊंडै पाणी रौ गुण न्यारौ, भोळा वचन-विलासी
दूजी डाळी बैठ्यौ विखधर, निजर हंस रै आयौ
सांप-सांप करतौ उड़ चाल्यौ, अंबर में घबरायौ
मोर उतावळ करी सांप पर, करड़ी चूंच चलाई
विखधर री सगळी काया नै, टुकड़ा कर गटकाई
अब हंस नै ठाह पड़ी आ, मोरां सूं मतवाळी
मानसरोवर सूं हद ऊंची, धरती धोरां वाळी