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मारवाड़ी समाज में समाप्त होती परम्परा:

Rao GumanSingh Guman singh


मारवाड़ी समाज में ब्याह-शादियों में कल तक मुस्लिम घरों की राजस्थानी मुस्लिम औरतें ही लखारी चूड़ियाँ पहनाया करती थी। यह ब्याह की एक रस्म सी बन चुकी थी। मुस्लिम औरतों का समाज के घरों मे आना-जाना भी था। परन्तु हिन्दुस्तान विभाजन ने इन रिस्तों में काफी दरार पैदा कर दी, अब तो यह परम्परा समाप्त सी हो गई है। ठीक इसी प्रकार हर गाँव व कस्बे में मारवाड़ी 'नाई' एवं 'मिसरानी' का होना उतना ही जरूरी माना जाता था, जितना जीना-मरना। कुछ ऎसी बातें इस समाज में उदाहरण के रूप में आज भी मिल जायेगी, जिससे यह सबुत आसानी से मिल जाएँगे कि यह समाज राजस्थान से जैसे- जैसे दूर होता गया, वैसे-वैसे ही स्थानीय समाज एवं स्थानीय बोल-चाल, भाषा, लोक त्योहारों को अपनाता चला गया। समय का यह दौर यहाँ तक चला कि लोगों ने राजस्थान की पुश्तों पुरानी जमीन-जायदाद को कौड़ियों के भाव बिक्री कर दी। जो जिस प्रदेश में बसा वह वहीं का होकर रह गया। देश में आजादी के पूर्व मारवाड़ियों का केन्द्र प्रायः अविभाजित बंगाल ही रहा। धीरे-धीरे यह समाज आस-पास के शहरों, प्रान्तौं में फैलता चला गया। यहाँ बता देना भी जरूरी होगा कि दक्षिण भारत को छोड़कर पूर्वी भारत में मारवाडि़यों का प्रवेश प्रायः 300 वर्ष पूर्व ही हो गया था, जिसमें बिहार ( झारखण्ड के साथ) , असम, अविभाजित बंगाल (उडिसा को लेकर), और कलकत्ता इनका केन्द्र बना रहता । एक प्रकार से कोलकाता को मारवाड़ीयों का 'मिनी राजस्थान' भी कहा जा सकता है। स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी थी, कि कलकत्ता एक प्रकार से मारवाड़ियों का मक्का-मदीना बन चुका था। इस हरी-भरी धरती को अपना बना लेने वाला यह समाज अपने आप में एक उदाहरण तो है ही, साथ ही साथ यहाँ के सुख-दुःख में भी बराबर का साथ रहा है, चाहे वह अकाल की घटना हो या बाढ़ की हर पल इस समाज ने अग्रणी भूमिका अदा की है। एक सबसे बड़ी बात मुझे देखने को मिली की अहिन्दी भाषी प्रन्तों में मारवाड़ी समाज ने हिन्दी का एक प्रकार से लालन-पोषण ही किया। इसका सबसे बड़ा कारण था, इन प्रन्तों हिन्दी भाषा-भाषी के लिये किसी प्रकार की शिक्षण व्यवस्था का न होना, जगह-जगह हिन्दी का पोषण करने हेतु स्कूल-विद्यालय-पुस्तकालय की स्थापना के साथ-साथ हिन्दी समाचार पत्रों के प्रकाशन में इस प्रवासी समाज के योगदान को इंकार करना किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। पिछले दिनों जब समाज विकास में 'मारवाड़ी समाज के धरोहर' का प्रकाशन का निर्णय लिया तो, विभिन्न प्रन्तों से काफी आंकड़े प्राप्त हुए, जिसके विवरणों को आगे देने का प्रयास करूंगा, पाया कि इस समाज ने जो भी जनोपयोगी कार्य किये वे समस्त मानवजाति के लिये तो किये ही, साथ ही साथ स्थानीय साहित्य,भाषा, संस्कृति के विकास में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह बात मेरे लिख देने से या कह देने से प्रमाणित नहीं हो जाती, कोई भी यह जानना जरूर चाहेगा कि, यह बात कैसे प्रमाणित की जाय? इसका एक छोटा सा उदाहरण असम में "रूपकंवर ज्योतिप्रसाद अग्रवाला" का ही देना चाहूगां, असम में एक दिन का राजकीय छुट्टी प्रति वर्ष मनाई जाती है, इनके नाम से और इस दिन समुचा असमिया समाज दिनभर सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं, एकप्रकार से "रूपकंवर ज्योतिप्रसाद अग्रवाला" को असम का रविन्द्रनाथ ठाकुर कहा जा सकता है। एक समय था जब समाज के लोग न सिर्फ अपने समाज के विकास की बात सोचते थे, वे स्थानीय साहित्य,भाषा, संस्कृति के विकास में भी अपना महत्वपूर्ण दिया है। आज की पीढ़ी में यह बात देखने को नहीं मिलती, जो काम मारवाड़ी समाज ने किये उनके आंकडों का एक दस्तावेज यदि बनाया जाय तो यह ज्यादा उपयोगी होगा। मारवाड़ी शब्द की परिभाषा: जहाँ तक मेरा मानना है, 'मारवाड़ी' - शब्द न कोई विशेष जाति, न धर्म और न ही किसी प्रान्त को द्योतक है। जैसे पंजाबी, बंगाली, गुजराती आदि कहने पर अहसास होता है। राजस्थान व हरियाणा के लोगों को इनकी भाषा-बोली, पहनाव- संस्कृति में एकरूपता के चलते इन्हें देश के अन्य प्रन्तों में, विदेशों में भी मारवाड़ी शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा। (इस बात पर आगे चर्चा करूगाँ कि, कब से और कैसे इस समाज को 'मारवाड़ी' शब्द से संबोधित किया जाने लगा, और इसके पीछे क्या कारण थे।) अब यह प्रश्न स्वभाविक तौर पर हो सकता है, कि तब मारवाड़ी किस प्रान्त के हैं? एक पाठक ने रायपुर से ई- मेल कर, मुझसे प्रश्न किया कि - "मारवाड़ी से तात्पर्य सीधे रूप में राजस्थानी से माना जाता है, मारवाड़ी सम्मेलन भी अपने संविधान में राजस्थानी संस्कृति की बात करती है, तो फिर हरियाणा के प्रवासी लोगों को देश के अन्य हिस्सों में मारवाड़ी शब्द से क्यों सम्बोधित किया जाता है?" इसका सटिक उत्तर अभी तक मेरे पास नहीं है, हाँ यह बात तो सही है कि जहाँ एक तरफ राजस्थान व हरियाणा के लोगों को देश के अन्य भागों में मारवाड़ी कह कर संबोधित किया जाता है, वहीं राजस्थानी व हरियाण्वी अपने मूल प्रान्त के अन्दर अपने आपको मारवाड़ी नहीं मानते। इसका कारण क्या है इस पर हम बाद में विचार करगें। यहाँ एक महत्वपूर्ण बात ओर है, जिसपर भी गौर करने की बात है कि, हिन्दू, जैन, ब्राह्मण समाज, माहेश्वरी, ओसवाल, जाट, बनिया, आदि सभी को देश-विदेश के समस्त हिस्सों में मारवाड़ी कहा जाता है, परन्तु राजस्थान, हरियाणा के मुसलमानों को मारवाड़ी शब्द से संबोधित नहीं किया जाता है और ( कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो ) न ही वे अपने आपको संबंधित रखना पसंद करते हैं । वैसे तो अभी तक इस शब्द की सही व्याख्या नहीं हो पाई है, फिर भी कई विद्वानों ने इसकी व्याख्या करने का प्रयास किया है। जिसमें मारवाड़ के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री गौरीशंकर हीरा चन्द जी ओझा ने लिखा है, 'मारवाड़' शब्द देशवाची और मारवाड़ी शब्द लोकभाषा एवं संस्कृतिवाची है। राजपुताना के लोगों को हिन्दूस्तान में मारवाड़ी ही कहते हैं। जयपुर के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ तथा पुरातत्ववेत्ता पुरोहित श्री हरि नारायण जी ने लिखा है - " राजपूताना से बाहर जाने वाले लोग अपने पहनावे, रहन-सहन, व्यवहार और व्यापार आदि में समानता के कारण राजस्थान से बाहर कलकत्ता, मुंबई आदि भारत के सभी स्थानों में मारवाड़ी कहे जाते हैं, भले ही वे राजस्थान में जोधपुर, बीकानेर अथवा जयपुर के या अन्य किसी राज्य (राजस्थानी रियासत वाले#) के निवासी क्यों न हों। डॉ.डी.के.टकनेत ने अपनी पुस्तक "मारवाड़ी समाज" में बालचन्द मोदी का हवाला देकर लिखा है कि " मारवाड़ शब्द संस्कृत के 'मरुवर' का अपभ्रंश है एवं प्राचीन काल में यह मरू प्रदेश कहलाता था। इसकी व्याख्या श्री मोदी के अनुसार 'माड' जैसलमेर का दूसरा नाम था और 'वाड' मेवाड़ का अंतिम अंश। इन दोनों शब्दों को मिलाकर मारवाड़ शब्द बना और इसी शब्द से 'मारवाड़ी' शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है। जब यहा बात लिखी गई थी उन दिनों राजस्थान में कई अलग-अलग रियासतें भी थी, जिसे बाद मेम राजस्थान में विलय कर दिया गया। क्रमशः - शम्भु चौधरी

1 comments:

  1. VIJAY KAYAL ने कहा…

    मारवाड़ी शब्द की बहुत समीचीन व्याख्या अवश्य की गयी है तथापि सही निष्कर्ष नहीं दर्शाया गया। मेरी विनम्र राय में राजस्थान और हरयाणा से सम्बद्ध सभी जन मारवाड़ी हैं भले ही वे किसी भी धर्म,जाति अथवा सम्प्रदाय से जुड़े हों। आपकी प्रस्तुत रचना सरल और स्पष्ट है।